सोमवार, 5 जनवरी 2015

उत्तराखंड के प्राचीन शासक और कृष्ण.बाणासुर युद्ध

                         धर्मेन्द्र मोहन पंत / बिजेंद्र मोहन पंत 
       हाड़ में अधिकतर जातियां दूसरी जगहों से आयी। कभी आर्यों ने आक्रमण किया तो कोई महाराष्ट्र, गुजरात, मध्यप्रदेश आदि क्षेत्रों से यहां पहुंची। आखिर कौन थे जो उत्तराखंड के शुरूआती बासिंदे थे। महाभारत के वन पर्व में लिखा गया है कि उत्तर हिमालय में आज से लगभग 3000 साल पहले किरात, पुलिंद और तंगण जाति के लोग रहते थे। इन तीनों जातियों के राजा सुबाहू थे जिसकी राजधानी श्रीपुर यानि आज का श्रीनगर (गढ़वाल) थी।
          राजा सुबाहू के अलावा उत्तराखंड में तब राजा विराट का राज्य भी हुआ करता था जिसकी राजधानी बैराटगढ़ थी जिसे गढ़ी के नाम से जाना जाता था। यह जौनसार क्षेत्र में पड़ता है। माना जाता है कि इसी विराट राजा के यहां पांडवों ने अज्ञातवास के दौरान अपने दिन बिताये थे। इसी राजा की पुत्री उत्तरा से अभिमन्यु का विवाह हुआ था। इस राजा के पास हजारों गायें थी जिन्हें कौरवों ने चुरा लिया था और अर्जुन ने अपना असली रूप दिखाकर तब गायों को छुड़वाया था।
        एक और तीसरा शासक था बाणासुर। वह हिमालय के इस क्षेत्र का सबसे शक्तिशाली शासक था और उसका राज्य तिब्बत तक फैला हुआ था। बाणासुर दैत्यराज बलि के सौ प्रतापी पुत्रों में सबसे बड़ा था और उसने भगवान शंकर की कठिन तपस्या की थी। उसकी राजधानी शोणितपुर थी। इस शोणितपुर कहां था इसको लेकर अलग अलग कहानियां कही जाती हैं। कोई इसे गुप्तकाशी के करीब, कोई सराण तो कोई तिब्बत की राजधानी ल्हासा के करीब मानता है। बाणासुर के निधन के बाद उसका मंत्री कुष्मांड शोणितपुर का राजा बना था।
       बाणासुर को लेकर एक कहानी बड़ी प्रचलित है। बाणासुर की बेटी ऊषा गुप्तकाशी में पढ़ती थी और उनकी शिक्षिका कोई और नहीं बल्कि माता पार्वती थी। इस जगह का नाम गुप्तकाशी भी इसलिए पड़ा क्योंकि शिव और पार्वती यहां गुप्त रूप से रहते थे। इसलिए शिव और पार्वती दोनों ही ऊषा को अपनी पुत्री जैसा मानते थे।
       
         हा जाता है कि एक बार ऊषा ने स्वप्न में श्री कृष्ण के पौत्र तथा प्रद्युम्न के पुत्र अनिरुद्ध को देखा और उसपर मोहित हो गई। उसने अपने स्वप्न की बात अपनी सखी चित्रलेखा को बताया। चित्रलेखा ने अपने योगबल से अनिरुद्ध का चित्र बनाया और उषा को दिखाया और पूछा, "क्या तुमने इसी को स्वप्न में देखा था?" इस पर उषा बोली, "हाँ, यही मेरा चितचोर है। अब मैं इनके बिना नहीं रह सकती।"
           चित्रलेखा ने द्वारिका जाकर सोते हुये अनिरुद्ध को पलंग सहित ऊषा के महल में पहुँचा दिया। नींद खुलने पर अनिरुद्ध ने स्वयं को एक नये स्थान पर पाया और देखा कि उसके पास एक सुन्दरी बैठी हुई है। अनिरुद्ध के पूछने पर ऊषा ने बताया कि वह वाणासुर की पुत्री है और अनिरुद्ध को पति रूप में पाने की कामना रखती है। अनिरुद्ध भी ऊषा पर मोहित हो गये और वहीं उसके साथ महल में ही रहने लगे। 
            पहरेदारों को सन्देह हो गया कि ऊषा के महल में अवश्य कोई बाहरी मनुष्य आ पहुँचा है। उन्होंने जाकर वाणासुर से अपने सन्देह के विषय में बताया। उसी समय वाणासुर ने अपने महल की ध्वजा को गिरी हुई देखा। उसे निश्चय हो गया कि कोई मेरा शत्रु ही ऊषा के महल में प्रवेश कर गया है। वह अस्त्र शस्त्र से सुसज्जित होकर ऊषा के महल में पहुँचा। उसने देखा कि उसकी पुत्री उषा के समीप पीताम्बर वस्त्र पहने बड़े बड़े नेत्रों वाला एक साँवला सलोना पुरुष बैठा हुआ है। वाणासुर ने क्रोधित हो कर अनिरुद्ध को युद्ध के लिये ललकारा। उसकी ललकार सुनकर अनिरुद्ध भी युद्ध के लिये प्रस्तुत हो गये और उन्होंने लोहे के एक भयंकर मुद्गर को उठा कर उसी के द्वारा वाणासुर के समस्त अंगरक्षकों को मार डाला। वाणासुर और अनिरुद्ध में घोर युद्ध होने लगा। जब वाणासुर ने देखा कि अनिरुद्ध किसी भी प्रकार से उसके काबू में नहीं आ रहा है तो उसने नागपाश से उन्हें बाँधकर बन्दी बना लिया।
            इसको लेकर कृष्ण और ​बाणासुर में युद्ध हुआ था। तब बाणासुर की तरफ से शंकर भगवान भी युद्ध के मैदान पर कूद पड़े थे। आखिर में दोनों पक्षों में समझौता हुआ तथा अनिरूद्ध और ऊषा का विवाह कर दिया गया। 

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