शनिवार, 4 जुलाई 2015

चलो भैजी कौथिग जौंला

     चपन में जब कौथिग की बात आती थी तो मेरे लिये इसका मतलब अपने गांव की कुलदेवी नंदादेवी, पास में स्थित जणदादेवी, माध्योसैण या फिर ईसागर यानि एकेश्वर के कौथिग तक सीमित था। असल में तब ये कौथिग हमारी जिंदगी का अहम हिस्सा हुआ करते थे और हम इनका बेसब्री से इंतजार करते थे। पहनने को नये कपड़े मिलते थे और इन कौथिग यानि मेलों में सीटी, बांसुरी खरीदने से लेकर जलेबी खाने और बर्फ की आईसक्रीम चूसने का मौका मिल जाता था। कोई दूर का रिश्तेदार मिल जाता तो जेब में दस . बीस पैसे या ज्यादा हुआ तो चवन्नी, अठन्नी डालकर चला जाता तो उसके लिये मन में इज्जत बढ़ जाती थी। नंदादेवी और जणदादेवी कौथिग के लिये हम पांच . दस पैसे इकट्ठा करके रखते थे। जेब में यदि चार . पांच रूपये होते तो कौथिग का आनंद दुगुना हो जाता था। यह 70 और 80 के दशक का किस्सा है जब मैं गांव की संस्कृति और समाज में अपना बचपन बिता रहा था। कौथिग आज भी होते हैं लेकिन दुनिया का डिजिटलीकरण होने के बाद मुझे नहीं लगता कि पहाड़ का आज का बच्चा इन मेलों को लेकर उतना ही उत्साहित होगा जितना कभी मैं या मेरी पीढ़ी के लोग या मेरे से पहले के बच्चे हुआ करते थे। कभी इन कौथिगों में जनसैलाब उमड़ पड़ता था। मैंने देखा है जणदादेवी और एकेश्वर में तिल रखने की जगह तक नहीं बचती थी लेकिन अब ऐसा नहीं है। कौथिग के दिन एकेश्वर के डांडों में लोगों की भीड़ अब महज कल्पना है।
जणदादेवी कौथिग का विहंगम दृश्य। फोटो .. श्री दीनदयाल सुंद्रियाल
     चपन में एक गीत भी सुना था 'गौचरा को मेला लग्यूं च भारी, मेला म अयीं ह्वेली दीदी, भुली स्याली ....'।  गौचर का मेला एक व्यावसायिक मेला था जिसकी शुरूआत 1943 में हुई थी लेकिन देवभूमि उत्तराखंड में अधिकतर मेले किसी देवस्थल से संबंध रखते हैं। किसी भी देवी या देवता के मंदिर के पास किसी नियत तिथि को कौथिग लगता है। इस तरह से कौथिग में धार्मिक कार्यों के अलावा लोगों को अपने सगे संबंधियों से मिलने और वर्ष भर की अपनी खट्टी मीठी यादों को साझा करने का मौका मिलता था। कोई बेटी अपने मां पिताजी, भाई बहन और गांव वालों से मिलने के लिये इन कौथिगों का बेसब्री से इंतजार करती थी। इसलिए अक्सर कौथिगों में शा​म को विछोह का एक मार्मिक दृश्य भी पैदा हो जाता था। किसी भाग्यशाली बेटी को कौथिग के ​बहाने अपने मायके एक दो दिन बिताने के लिये मिल जाते थे। उसके चेहरे की खुशी यहां पर शब्दों में व्यक्त नहीं की जा सकती है। इस तरह की खुशी और पीड़ा की कल्पना आज की 'मोबाइल पीढ़ी' नहीं कर सकती है।
    कौथिग किसी धार्मिक स्थल पर ही लगने का मतलब था कि जाते ही सबसे पहले देवी या देवता को भेंट चढ़ाना। एक पैसे से लेकर दस पैसे तक। कोई सवा रूपया भी रख लेता था। हमें यही कहा जाता था कि जब तक भेंट नहीं चढ़ायी तब तक कौथिग में कुछ खाना पीना नहीं। एक गलत परंपरा भी इन कौथिगों से जुड़ी थी और वह थी पशुबलि देने की। अमूमन बकरों की बलि दी जाती थी। यदि 'अठवाण' होती तो भैंसे की बलि भी दी जाती। मेरे लिये बचपन यह कौथिगों का नकारात्मक पहलू रहा। इधर बकरे का सिर धड़ से अलग होता और दूसरी तरफ लोगों में उसके रक्त का टीका लगाने की होड़ मच जाती। खुशी इस बात की है कि धीरे धीरे लोगों में जागरूकता आयी है और अब कई कौथिगों में बलि प्रथा लगभग समाप्त हो गयी है। कौथिगों में ढोल, दमाउ, हुड़का, डौंर, रणसिंघा आदि बजाये जाते हैं। ढोल की थाप पर यूं कहें कि कौथिगों में पांडव नृत्य या​नि पंडौं पर तो अच्छे खासों के पांव थिरकने लगते थे। कुछ लोगों के शरीर में देवी देवताओं का प्रवेश भी इन कौथिगों का एक हिस्सा रहा है।
   कभी उत्तराखंड के हर गांव में कौथिग होता था। अमूमन इनकी शुरूआत बैशाखी के दिन से होती थी और सितंबर अक्तूबर तक इन सीजन रहता था। अब इनकी संख्या घट गयी है। इसके बावजूद कई कौथिग आज भी उत्तराखंड की पहचान है। इनमें गौचर मेला, श्रीनगर का बैकुंठ चतुर्दशी मेला, उत्तरकाशी का माघ मेला, कोटद्वार के कण्वाश्रम में लगने वाला बसंत पंचमी मेला, अल्मोड़ा का नंदादेवी मेला, बागेश्वर का उत्तरायणी मेला, लोहाघाट का देवीधूरा मेला, टनकपुर का पूर्णागिरी या कालसन मेला, भीमताल में लगने वाला हरेला मेला, काठगोदाम के पास जियारानी का मेला, मुंडणेश्वर का मेला आदि प्रमुख हैं। अकेले पौड़ी गढ़वाल में ही 50 से अधिक बड़े कौथिग लगते हैं। इनमें मुंडणेश्वर, एकेश्वर, जणदादेवी, सल्ट महादेव, अदालीखाल, बिनसर, देवलगढ़, कौड़िया लैंसडाउन का ज्यूनि सेरा का मेला, ताड़केश्वर, संगलाकोटी, देवराजखाल, गिंदी कौथिग, बुंगी कौथिग, नैनीडांडा, रिखणीखाल, बेदीखाल, बीरौंखाल, घंडियाल, नयार घाटी का सत्यवान साबित्री मेला, दीवा मेला, कांडई कौथिग, दनगल (सतपुली), कांडा, थैलीसैण, बैंजरों, लंगूरगढ़ी, डांडा नागराज का कौथिग आदि प्रमुख हैं।

5 टिप्‍पणियां:

  1. Yai bahut achha paryaas hai chacha ji aapkai madhyam sai mai kothig ki jhalak dekhta aur mehsus karta hu mai apni life mai sirf 2 baar kothig gaya really bahut yaad aati hai apnai gaao ki aur waha kai kothigo ki

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  2. आपके ब्लॉग पर आकर अपने पहाड़ सा सुकून मिला
    यहाँ आकर लगा जैसे यादों का पिटारा भरा पटा है ...
    कभी हम भी दीवा मेला, बीरोंखाल के मेले में जाने के लिए बड़े उतावले रहते थे ..
    बहुत सी .बीते दिनों की यादें एक एक कर ताज़ी होने लगी हैं . .
    ब्लॉग पर अपने गढ़वाल के बारे में सुन्दर ढंग से प्रस्तुतीकरण के लिए आभार!

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    1. आपके प्रेरणादायी शब्दों के लिये बहुत बहुत धन्यवाद। पहाड़ों की अपनी यादों को ताजा करने के लिये मैंने इस साल के शुरू में घसेरी शुरू किया था। मुझे खुशी है कि 'घसेरी' को आप लोगों का स्नेह मिल रहा है।

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  3. जे हो daanda nagaraja..... बहोट दिन हो गये वाहा गये ....गाओं की बड़ी याद आती है ...हम भी गये है दो या टीन बार वाहा ....आज क मेलो मेी वो बात कहा ?

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  4. बैसाख के महीने में होने वाले कौथिग में अधिकतर बलि प्रथा का रिवाज नहीं होता था।
    बलि के लिए जतोड़े होते थे न कि उन्हें कौथिग कहा जाता था। जैसे कालिंका का जतोडा।वैसे कौथिग कुछ लोग कहते थे। परन्तु जतोड़े का मतलब ही मारना हो सकता है या यो कहिये बलि देना। मेरा कहने का मतलब बैसाख , जेठ में होने वाले कौथिग में बलि नहीं देने वाले मेलो से है।

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