शनिवार, 1 अगस्त 2015

मेरे बचपन का 'शहर' कालौंडांड यानि लैन्सडाउन

बादलों का शहर लैन्सडाउन और मुख्य बाजार। फोटो : श्रीदेव उनियाल और ठाकुर मनमोहन सिंह रावत।
   चपन में अक्सर पिताजी के साथ लैन्सडाउन जाया करता था। दादी के लिये वह हमेशा कालौंडांड और मां के लिये लैन्सीडौन रहा लेकिन गढ़वाल राइफल्स के जवान पिताजी के लिये लैन्सडाउन। उन्होंने ही समझाया था कि गढ़वाली लोगों के लिये तो वह कालौंडांड या कालूडांड ही था लेकिन अंग्रेजों का शासन था। उन्हें यह नाम जंचा नहीं और उन्होंने लार्ड लैन्सडाउन का नाम उसे दे दिया। लार्ड लैन्सडाउन का नाम असल में सर हेनरी चाल्र्स कीथ पेटी फिट्जमौरिस था जो लैन्सडाउन के पांचवें मार्क्वस (इंग्लैंड में अमीरों को दी जाने वाली पदवी) थे। लैन्सडाउन हमें भी जंच गया और कालौंडांड पुरानी पीढ़ी के साथ ही मर गया। लार्ड लैन्सडाउन 1884 से 1888 तक भारत के वायसराय रहे थे। वे इससे पहले कनाडा के गवर्नर जनरल थे इसलिए वहां भी एक कस्बे का नाम लैन्सडाउन है। मैंने इसे कालौंडांड बनते भी देखा है और अब लैन्सडाउन तो है ही। मैंने यहां काले घने बादलों को इसकी पहाड़ियों पर विचरण करते हुए कई बार देखा है। ऐसे बादल कि दिन में अंधेरा हो जाए। इसके अलावा यहां बांज के जंगल भी हैं। यही वजह थी कि हमारे पुरखों ने इसे कालौंडांड नाम दिया। मतलब काला पहाड़। यह स्वीकार करने में हिचक नहीं कि यदि अंग्रेजों ने हमसे कालौंडांड छीना तो लैन्सडाउन को कुछ खूबसूरत इमारतें भी दी। यहां अंग्रेजों के जमाने के बंगले अब भी देखे जा सकते हैं। स्वच्छता और सुंदरता ही मुझे अक्सर लैन्सडाउन खींचकर ले आती थी। इसलिए तो एक बार दूर दूसरी पहाड़ी पर स्थित मंजकोट (बड़े भाई की ससुराल) से सुबह लेकर लैन्सडाउन घूमने के लिये निकल पड़ा था। पहले दो तीन किमी नीचे घाटी में उतरना और फिर मैतगढ़ से जयहरीखाल तक चार . पांच किमी की खड़ी चढ़ाई। जयहरीखाल से लैन्सडाउन तक बांज के जंगल के बीच से गुजरती साफ सुथरी सड़क का तो हर मोड़ जाना पहचाना सा लगता था। अब भले मोटरवाहनों की संख्या बढ़ गयी है लेकिन फिर भी यदि शांति और सुकून चाहिए तो कभी इस सड़क पर टहलने के लिये जरूर निकलना।

सवा सौ साल पहले अंग्रेजों ने मिटा दिया था कालौंडांड 

बादल घिरे और अंधेरा हुआ। तभी कहा होगा
                कालौंडांड यानि काला पहाड़। फोटो: श्री​देव उनियाल

     लैन्सडाउन उत्तराखंड के गढ़वाल जिले में 1706 मीटर यानि 5,597 फीट की ऊंचाई पर स्थित है। यहां सेना की गढ़वाल राइफल्स का मुख्यालय और ट्रेनिंग सेंटर है। गढ़वाल रेजीमेंट का इतिहास 100 साल से भी पुराना है। फील्ड मार्शल सर एफएस राबर्ट्स ने 1886 में गढ़वाल की अलग से रेजीमेंट बनाने की सिफारिश की थी और पांच मई 1887 को इसकी स्थापना कर दी गयी। गढ़वाल राइफल्स की पहली बटालियन चार नवंबर 1887 को लेफ्टिनेंट कर्नल ई पी मैनवारिंग के नेतृत्व में कालौंडांड पहुंची थी। तब लैन्सडाउन का नाम कालौंडांड ही था। इसका नाम 21 सितंबर 1890 को बदला गया लेकिन गढ़वाली लोगों की जुबान पर यह नाम रचने बसने में दशकों लग गये थे। गढ़वाल राइफल्स की यहां जो पहली बैरक बनी थी उसे मैनवारिंग लाइन्स नाम दिया गया था। लैन्सडाउन की स्वच्छता का बड़ा श्रेय गढ़वाल राइफल्स को जाता है, क्योंकि यहां का कैंटोनमेंट बोर्ड शहर, पार्क और सड़कों की सफाई और सुंदरता का ध्यान रखता है।
      लैन्सडाउन बांज, चीड़ और देवदार के पेड़ों से घिरा है। इनके बीच में बुरांश के भी पेड़ हैं। लाल लेकिन बड़े फूलों के कारण बुरांस का पेड़ दूर से अलग ही नजर आ जाता है। बसंत में जब बुरांश का फूल अपने पूरे शबाव पर होता है तो वह लोगों को इन जंगलों की तरफ आने के लिये आकर्षित करता है। अंग्रेजों के जमाने में यह काफी लोकप्रिय और पसंदीदा पहाड़ी स्थल था लेकिन बाद में मसूरी, नैनीताल लोगों को अधिक आकर्षित करने लगे और लैन्सडाउन एक शांत पहाड़ी स्थल बना रहा। अब भी लैन्सडाउन के प्रति लोगों का आकर्षण बहुत ज्यादा नहीं है लेकिन मैं आपको सलाह दूंगा कि यदि आप दिल्ली या आसपास के शहरों में रहते हैं तो सप्ताहांत में घूमकर आईये लैन्सडाउन। मैं गारंटी देता हूं वहां की खूबसूरती, पहाड़, जंगल आपका मनमोह देंगे। लैन्सडाउन जाने और वहां घूमने के लिये दो दिन का समय पर्याप्त है।

संतोषी माता मंदिर से सूर्यास्त का मनोरम दृश्य। फोटो : मोना पार्थसारथी

कब जाएं लैन्सडाउन

     साल में वैसे किसी भी समय आप लैन्सडाउन जा सकते हैं लेकिन गर्मियों के लिये यह आदर्श स्थल है। बरसात में तो लैन्सडाउन वास्तव में कालौंडांड बन जाता है लेकिन काली घटाओं और घने कोहरे के बीच कुछ समय बिताना है तो सावन के महीने में आप इस पहाड़ी स्थल की सैर कर सकते हैं। सितंबर से नवंबर के बीच का समय भी लैन्सडाउन की सैर के लिये आदर्श समय है। जनवरी और फरवरी में यहां बहुत अधिक ठंड पड़ती है। तब यहां बर्फ भी गिर जाती है।

पहले कोटद्वार और फिर लैन्सडाउन

      ब आप पूछेंगे कि लैन्सडाउन जाना कैसे है। यदि आप दिल्ली में रहते हैं या दिल्ली के रास्ते जाना चाहते हैं तो फिर सबसे बढ़िया विकल्प रेलगाड़ी और बसें हैं। पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन से रात को सवा दस बजे मसूरी एक्सप्रेस निकलती है जिसमें कुछ डब्बे कोटद्वार के लिये लगे रहते हैं। बस सवार हो जाइये रेलगाड़ी में और सुबह आप पहुंच जाएंगे कोटद्वार जो लैन्सडाउन का सबसे करीबी रेलवे स्टेशन भी है। दूसरा उपाय बसें हैं। मोरीगेट के अंतरराज्यीय बस अड्डे से रात 11 बजे तक कोटद्वार के लिये उत्तराखंड परिवहन निगम और उत्तरप्रदेश परिवहन निगम की बसें लगातार चलती रहती हैं। किराया भी ज्यादा नहीं है। ये बसें सुबह चार से पांच बजे तक आपको कोटद्वार पहुंचा देंगी। देहरादून, बरेली, आगरा, जयपुर, चंडीगढ़ आदि शहरों से भी कोटद्वार के लिये बसें आती हैं। आप अपनी गाड़ी से भी जा सकते हैं क्योंकि दिल्ली से कोटद्वार की दूरी केवल 208 किमी है और सफर में चार या पांच घंटे लगेंगे।
गढ़वाल राइफल्स का मुख्यालय है लैन्सडाउन। फोटो : मोना पार्थसारथी
      कोटद्वार से लैन्सडाउन के लिये बसें और टैक्सियां बस स्टैंड और रेलवे स्टेशन के पास में ही लगी रहती हैं। यहां पर आपको बसों के ड्राइवर और कंडक्टर लैन्सडाउन, लैन्सडाउन चिल्लाते हुए मिल जाएंगे। घुस जाईये किसी बस या टैक्सी में और यह सस्ते में आपको लैन्सडाउन पहुंचा देगी। आप यहां से टैक्सी बुक करके भी जा सकते हैं। एक या डेढ़ घंटे में आसानी से कोटद्वार से लैन्सडाउन पहुंचा जा सकता है। रास्ते में पहले दुगड्डा पड़ेगा। उसके आगे से बायीं तरफ एक रास्ता गुमखाल तो दूसरा लैन्सडाउन के लिये निकल जाएगा। कोटद्वार से लैन्सडाउन केवल 40 किमी दूर है। अगर आप मसूरी या देहरादून से लैन्सडाउन जाना चाहते हैं तो तब भी तीन या चार घंटे में पहुंच सकते हैं। मसूरी से लैन्सडाउन की दूरी लगभग 200 किमी है। इसके लिये भी आपको पहले कोटद्वार ही आना पड़ेगा। एक रास्ता पौड़ी से भी यहां आता है लेकिन वह काफी लंबा है और उसमें समय भी अधिक लगेगा। पौड़ी से लैन्सडाउन 78 किमी दूर है। यदि आप हवाई यात्रा करके लैन्सडाउन के करीब पहुंचना चाहते हैं तो आपको देहरादून के जौली ग्रांट हवाई अड्डे पर उतरना पड़ेगा। वहां से लैन्सडाउन 150 किमी दूर है।

टिप इन टाप से लेकर भुल्ला ताल, हर जगह है मस्त

      लैन्सडाउन में रूकने के लिये कुछ सस्ते होटल और रेस्ट हाउस हैं लेकिन गढ़वाल मंडल विकास निगम का रेस्ट हाउस जो मुख्य शहर से ऊपर पहाड़ी पर स्थित है और यहां से आप लैन्सडाउन का मनोहारी दृश्य भी देख सकते हैं। बेहतर होगा कि आप गढ़वाल मंडल विकास निगम के दिल्ली या देहरादून कार्यालय से पहले कमरे बुक करालें।
      अब लैन्सडाउन तो पहुंच गये लेकिन घूमने कहां जाएं। अगर आपको पर्वत श्रृंखलाओं की लंबी कतार और घाटियां देखनी हैं तो टिप इन टाप पर चले जाइये। पर्यटन विभाग ने यहां पर लकड़ी की कुछ झोपड़ियां भी बनायी हैं। आप आराम से यहां पर एक या दो दिन बिता सकते हैं। भुल्ला ताल (गढ़वाली में भुल्ला छोटे भाई को कहा जाता है) के शांत और स्वच्छ माहौल में भी कुछ समय जरूर बिताना। यह कृत्रिम झील है जो गढ़वाल राइफल्स ने बनायी थी। लैन्सडाउन में पानी की कमी शुरू से रही है और उसकी पूर्ति को ध्यान में रखकर यह झील बनायी गयी। आप यहां वोटिंग का भी लुत्फ उठा सकते हैं। क्वीन्स लाइन पर चर्च अंग्रेजों के जमाने की यादें ताजा कर देता है। क्वीन्स लाइन डेनमार्क की एलेक्जेंडरा (एलेक्जेंडरा कैरोलिना मैरी चारलोटी लौसी जूलिया) के नाम पर रखा गया जो इंग्लैंड के महाराजा इडवर्ड सप्तम की रानी थी। इसका निर्माण 1901 से 1910 के बीच कराया गया था। यह टिप इन टॉप के रास्ते पर पड़ता है।
लैन्सडाउन का आकर्षण है भुल्ला ताल। फोटो : श्रीदेव उनियाल
      सेना और उससे जुड़ी चीजों में दिलचस्पी रखते हैं तो दरवान सिंह संग्रहालय होकर आ जाइये। संतोषी माता का मंदिर भी यहां की खूबसूरती में चार चांद लगाता है। मुख्य बाजार से डेढ़ से दो किमी की दूरी पर भीम पकौड़ा है। यहां एक पत्थर के ऊपर दूसरा पत्थर बड़ी कुशलता से रखा हुआ है। कहा जाता है कि जब पांडव वनों में भटक रहे थे तो एक रात उन्होंने यहां भी बितायी और भीम ने इन पत्थरों को एक दूसरे के ऊपर रखा है। यह चट्टान आसानी से हिलायी जा सकती है लेकिन यह कभी गिरती नहीं। और हां यहां 'लवर्स लेन' भी है। बांज, चीड़ और देवदार के पेड़ों से घिरी सड़क। ट्रेकिंग पर निकल जाइये। यह घूमने के लिये आदर्श स्थल है। यदि आपके पास समय है तो लैन्सडाउन से लगभग 40 किमी की दूरी पर ​ताड़केश्वर महादेव का मंदिर है। सुंदर, सुरम्य और शांत स्थल। यहां भगवान शिव का मंदिर है जो देवदार के पेड़ों से घिरा है। यह गढ़वाल स्थित सिद्धपीठों में से एक है। लैन्सडान से टैक्सी लेकर आप आसानी से ताड़केश्वर महादेव जा सकते हैं। मुख्य सड़क से यह मंदिर लगभग एक किमी की चढ़ाई पर है। शिवरात्रि के दिन यहां बड़ा मेला लगता है। 
       तो फिर देर किस बात की। घूम आइये एक दिन दो तीन दिन के लिये लैन्सडाउन और फिर लिख भेजिये कि आपको कैसे लगा मेरे बचपन का यह 'शहर'। (धर्मेन्द्र पंत)

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14 टिप्‍पणियां:

  1. घूमने के मेरे शौक से आप वाकिफ ही है लेकिन आज तक जितने आसपास के पहाडी इलाके देखे, सबसे खूबसूरत लैंसडोन लगा । वाकई इतना खूबसूरत और फिर भी साफ सुथरा । सबसे अच्छी बात है कि वहां कोई प्वाइंट टू प्वाइंट टूरिस्ट स्थल नहीं है और ना ही दुकानों की भरमार । जो भी वहां जाये, वह ताडकेश्वर भी जरूर जाये । पंतजी आपका प्रयास सराहनीय है जो आप पहाडों से लोगों को रूबरू करा रहे हैं ।

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    1. शुक्रिया मोना। आपकी यात्रा ने लैन्सडाउन की मेरी बचपन की यादों को ताजा किया और फिर उस शहर के बारे में सबको बताने का विचार आया जो कभी मेरे लिये दिल्ली भी था और देहरादून। जब भी लैन्सडाउन जाता था तो गुमखाल के आगे से एक सड़क लैन्सडाउन और दूसरी कोटद्वार की तरफ निकल जाती थी। तब सोचता था कि क्या कभी मैं कोटद्वार वाली सड़क पर जाऊंगा। समय का चक्र है आज इसका उलटा हो गया। जब बीए कर रहा था तब पहली बार कोटद्वार और ट्रेन देखी और लैन्सडाउन दूर होता चला गया। अब 'घसेरी' के जरिये लैन्सडाउन जैसे बचपन के शहरों की तरफ लौटने की कोशिश कर रहा हूं।

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  2. इतनी वृहद जानकारी के लिए पंत जी आपका धन्यवाद लेकिन एक बात कहना चाहूँगा कि उत्तराखंड सरकार को आपको धन्यवाद देना चाहिए जो एक तरह से आप उनकी इतनी मदद कर रहें हैं

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    1. राजेश भाई। इससे मुझे खुद को भी सुकून मिलता है। जिस पहाड़ ने मुझे पाला पोसा और बड़ा किया। जहां मेरा बचपन और किशोरावस्था बीती उसको कुछ वापस लौटाने का यह मेरा छोटा सा प्रयास है। मौका मिले तो कभी लैन्सडाउन जरूर जाना।

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  3. पौड़ी में एम ए की पढाई करता था..बाद में पीएचडी करते हुए नजीबाबाद और कोटद्वार के बीच बेगम के कोठी में एक्सकेवेसन किया कुषाण काल के अवशेष ढूंढने के लिये..कई बार कोटद्वार होते हुए अल्मोडा जाता था..पौडी से जाते हुए बीच से रास्ता कटता था..पूछा तो पता लगा कि लैंसडाउन को जाता है..लेकिन आज तक नहीं जा पाया..लेकिन अब तो जाना ही पडेगा...

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    1. अब यही मेरे साथ हो रहा है। गुमखाल से एक सड़क बायीं तरफ लैन्सडाउन की तरफ निकल जाती है और मैं दूसरी सड़क से कोटद्वार निकल जाता हूं। उस जगह से लैन्सडाउन केवल 10 या 11 किमी दूर है। लेकिन आप जाइये लैन्सडाउन। आपको अच्छा लगेगा।

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  4. यहाँ बहुत समय रहे । पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए सुंदर व् दिलचस्प आलेख बधाई आदरणीय पंत जी । नमस्कार ।

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    1. आपका तहेदिल से आभार। यह लोगों को फिर से पहाड़ से जोड़ने का छोटा सा प्रयास है। उम्मीद है आपको अन्य लेख भी पसंद आएंगे।

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  5. देवर जी म्यारा नी जाणु कालों का डांडा
    ये कालों का डांडा देवर जी सदनी कुयेड़ि रैंदी
    पैरी जाली गंजी देवर जी पैरी जाली गंजी
    तुम भर्ती व्है जाला देवर जी कुड़ी पुंगड़ी बंजी।।।।देवर जी म्यारा।

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  6. पंत जी आपका बहुत बहुत धन्यवाद् इतने अच्छे वर्णन के लिए। आज दिल्ली में बरसात है और ऐसे दिन लैन्सडौन के बारे में पढ़ा तो गढ़वाल राइफल्स का ग्राउंड, चर्च/ लाइब्रेरी और घुमावदार सड़के सब याद आ गयी। हार्दिक धन्यवाद्

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  7. Pantji bahut hi sunder laikh. Hum har saal tarkeshwar mahadev jate hai raste mai lensdown bhi padta hai per kabhi jane ka vichar nahi aya. Ab plan feb. 2016 mai hai apni putri ke pehle janmdin ke uplaksh per. Vichar ek baar lensdown ko daikhne ka bhi ban raha hai ap ke laikh ko padker. Vichar banane ka dhanyawad

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    1. लैन्सडौन और ताड़केश्वर में दूरी ही कितनी है महज 40 किमी। उम्मीद है आपको अच्छा लगेगा और इस आलेख से मदद मिलेगी। शुभकामनाएं।

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  8. Shri Pant ji apka bahut bahut abhaar ki aapne kaludanda ke bare me jaankari pradan kari...waise to uttarakhand me sare hi sthan ramnik hai lekin uski jaankaari hamare deshwasio ko to kya hum uttarakhandio ko bhi nahi hai...main apka ye lekh apne facebook ke jariye aage saajhaa karne ki anumati chahunga...dhanyawaad

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    1. आपका आभार। उद्देश्य यही है कि पहाड़ों के बारे में अधिक से अधिक लोग जानें। इसलिए इस ब्लाग की शुरूआत की। आप इसे शेयर करिये मुझे खुशी होगी।

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