शुक्रवार, 11 सितंबर 2015

दोण और कंडी से होती है (थी) बेटी की विदाई

      भी कुछ साल पहले की एक फोटो देखी। किसी काम के सिलसिले में पूरा परिवार या कहें कुटुम्ब गांव गया हुआ था। बहनें भी पहुंची थी। जब गांव से विदाई का वक्त करीब आया तो बात आयी कि बहनों के लिये दूण (दोण) और कंडी की। आजकल गांवों में जैसा चलन है वैसा ही किया जाने लगा। दोण के लिये पैसे दे दो और कंडी के बजाय लड्डू या मिठाई खरीदकर सौंप दो। लगभग सभी बहनें दिल्ली में रहती हैं तो फिर दोण या कंडी के बारे में किसी ने ज्यादा सोचना भी उचित नहीं समझा। तभी चाचीजी ने कहा कि दोण तो ठीक है लेकिन अगर 'अरसों की कंडी' बन जाती तो बेहतर होता। उनकी बात में सबको दम लगा और फिर शुरू हो गयी अरसा बनाने की तैयारी। अरसा लाल या हल्के काले रंग का मिष्ठान जिसे चावल के आटे यानि पीठ (पीठू) से बनाया जाता है। इसके बारे में मैं आगे विस्तार से चर्चा करूंगा। 
    
यहां पर तैयार हो रहे हैं अरसा
दोण और कंडी की प्रथा उत्तराखंड में सदियों से चली आ रही है। एक समय था जबकि इनके बिना ​बेटी की विदाई की कल्पना नहीं की जा सकती थी। कमोबेश स्थिति अब भी बहुत ज्यादा नहीं बदली है। बेटी को अब भी विदाई पर दोण या कंडी देने की बात होती है लेकिन अब दोण ना तो दोण रहा और कंडी के नाम को भी बस घसीटा जा रहा है। किसी जमाने में एक पिता के पास बेटी को देने के लिये यदि कुछ होता था तो अनाज और घर में बनायी खाने की सामग्री। इन्हीं ने कालांतर में दोण और कंडी का रूप ले लिया। आप इसे दहेज का एक रूप कह सकते हो और इसलिए यदि 50 . 60 साल पहले की बात होती तो शायद मैं इसका विरोध करने वालों में शामिल होता लेकिन यह हमारी परंपरा है जिससे सकारात्मक और नकारात्मक पक्ष दोनों जुड़े हुए हैं। बहू घर आएगी तो दोण यानि अनाज लाएगी। यह दोण चावल, गेहूं और यहां तक कि कोदा का भी हो सकता था। कंडी यानि टोकरी में होते थे अरसा, स्वाला (एक तरह की पूड़ी) और भूडा (दाल की पकोड़ी)। ससुराल पहुंचने पर सास के ताने या तारीफ दोण और कंडी के आकार और प्रकार पर निर्भर करते थे।

दोण यानि 32 किलो  

    हले बात करते हैं दोण की। घसेरी में कुछ दिन पहले गांवों में माप, तौल के पैमानों पर चर्चा की गयी थी। इसमें दोण का भी जिक्र हुआ था। एक दोण मतलब 16 पाथा या 32 सेर। (कृपया देखें गांवों में अब भी किलोवाट पर भारी पड़ते हैं सेर, पाथा)। सरल शब्दों में कहें तो एक दोण यानि 32 किलो। बेटी को विदाई के वक्त जब दोण दिया जाता था तो उसमें 16 पाथा या 32 सेर अनाज रखा जाता था। इससे वह दोण बन जाता था। आजकल गांवों में मैंने चलन देखा है कि बाजार से 25 किलो वाली चावल की बोरी खरीदी और उसी को दोण का नाम दे दिया। अगर आप वास्तव में बेटी या बहन का दोण देकर विदा कर रहे हैं तो उसका वजन कम से कम 32 किलो तो होना ही चाहिए। बहन या बेटी के घर किसी कार्य में शामिल होने पर भी दोण साथ में लेकर जाने की प्रथा है। मैं भी पिछले साल भानजे की शादी में गया तो अपने साथ दोण और कंडी ले गया था लेकिन माफ करना मैंने भी सतपुली से 25 किलो वाली चावल की बोरी उठायी थी और दिल्ली से जा रहा था इसलिए लड्डू ले जाना मेरी मजबूरी थी। भविष्य में आप अगर कोशिश करें तो धर्मेन्द्र को सबक सिखाकर 32 किलो का दोण ले जाएं। यदि बेटी के ससुराल वालों को अधिक खुश करना है तो उसका वजन एक मण यानि 40 किलो भी कर दिया जाता था लेकिन नाम इसका दोण ही रहता था। गांव में दोण और कंडी ढोने वाले भी होते थे जिन्हें उनका मेहनतनामा देने का काम ससुराल वालों का होता था। दोण कंडी ले जाने वाले की अच्छी खातिरदारी हुई तो ससुरालियों की बहू के मायके में तारीफ सुनिश्चित हो जाती थी।

लड्डू नहीं अरसों की बनाओ कंडी

    रसा यानि उत्तराखंड का असली मिष्ठान। लड्डू की कंडी तो औपचारिकता है। लड्डू को कंडी में भी कौन ले जाता है। दो, चार, पांच किलो तुलवाये, डिब्बे में रखा और चल दिये। उत्तराखंड के लाला इसलिए आजकल पांच . पांच किलो के मिठाई के डिब्बे भी रखने लगे हैं। उनको पता है कि गांव वाले आलसी और परंपरा से दूर हो गये हैं और कंडी उन्हें तैयार करनी है। असली कंडी तो वही है जो अरसों से भरी हो। बेटी को विदा करना है तो उसमें स्वाला और भूड़ा भी रख दिये जाते थे। कंडी रिंगाल या बांस की बनी टोकरी होती है। यह छोटी, मध्यम और बड़ी आकार की होती है। हम यहां पर जिस कंडी की बात कर रहे हैं उसका आकार बड़ा होता है। यह दोण की सहभागिनी, सहधर्मिणी, सहचारिणी है। असल में कंडी के बिना दोण की कल्पना नहीं की जा सकती है। अब बात करते हैं कंडी के अहम अंग अरसा की। अरसा को उत्तराखंड का पकवान माना जाता है लेकिन दक्षिण भारतीय राज्यों आंध्र प्रदेश, ओड़िशा आदि में धार्मिक कार्यों के अवसर पर इसी तरह का पकवान बनाया जाता है। कहा जाता है कि उत्तराखंड में भी सदियों पहले इन्हीं राज्यों से अरसा का आगमन हुआ था। अरसा बनाना हर किसी के बस की बात नहीं। गांवों में इसको बनाने वाले विशेषज्ञ होते हैं और वही इनको बनाने का काम करते हैं। आज भी शादी से कुछ दिन पहले 'डाली' की प्रचलन है जिसमें अरसा बनते हैं। अब भले ही रंग बिरंगे निमंत्रण पत्र देने का चलन हो लेकिन कभी केवल अरसा भेजकर शादी में शामिल होने के लिये आमंत्रित किया जाता था। खुशी होती है कि अब भी कुछ जगह यह चलन बना हुआ है। अरसा मिलने का ही मतलब यह होता था कि आप शादी में आमंत्रित हैं। इस तरह से यह पकवान उत्तराखंड में काफी महत्व रखता है।

पहले पाग बनाओ फिर अरसा 

     ओ अब घसेरी के साथ अरसा बनाने की कोशिश करते हैं। पहले भी बता दिया गया है कि यह चावल से बनता है। रात को चावल भिगो कर रख देने हैं। सुबह उनसे सारा पानी निकालकर (गढ़वाली में पानी पसाना कहते) उसको ओखली में कूटना है और उसे आटे जैसा बनाना है। गेंहू के आटे की तरह इसको आटा नहीं कहा जाता बल्कि इसको नाम मिला है पीठू या पीठ। यह मोटा नहीं बल्कि बारीक होना चाहिए। यदि मोटा हुआ तो उसे फिर से कूटना पड़ता है। इसके बाद पीठू को आटे जैसे ही चलनी से चालना है। इस बीच दूसरी तैयारियां भी करनी पड़ती हैं। तांबे के बड़े बर्तन में पानी रखकर उसमें भेली यानि गुड़ डालकर उसे पकाना है। कितनी भेली डालनी है यह महत्वपूर्ण है। एक भेली दो किलो की होती है। इस तरह से यदि आपको दो पाथा यानि लगभग चार किलो चावल के अरसा बनाने हैं तो उसके लिये एक भेली पर्याप्त है। बस यही हिसाब है। दस पाथा चावल के लिये पांच भेली या यूं कहें कि दस किलो गुड़ को पकाना है। जब गुड़ पक जायेगा तो उसमें गर्म रहते ही पीठू मिलाना है और उसे हलवा जैसा बना देना है। यह ज्यादा गाढ़ा और ज्यादा पतला भी नहीं होना चाहिए। इसे पाग कहते हैं। ​एक और कढ़ाई में तेल गर्म किया जाता है। जब तेल गर्म हो जाता है तो पाग के पेड़े जैसे या थोड़ा गोलाकार और चपटा आकार (या जिस भी आकार के आपको बनाने हों) के कई हिस्से तैयार करके उन्हें पत्तों में रख देना है। ध्यान रखे कि पत्ते कंदार, तिमला या बट के ही होने चाहिए क्योंकि इसमें पाग चिपकता नहीं है। एक साथ 15 . 20 को तैयार करके फिर उन्हें तेल में पका देना है। हो गये अरसा तैयार। एक ऐसा पकवान जो कई दिनों तक खराब नहीं होता। इसको आप अपने दूरदराज के सगे संबंधियों के लिये भी भेज सकते हैं। (इनपुट श्री रामकृष्ण घिल्डियाल)
     हमने स्वालों की भी बात की थी तो उनको बनाना आसान है। स्वाला भी पूड़ी जैसे ही बनते हैं अंतर इतना है कि गेहूं के आटे को सामान्य पानी से नहीं बल्कि गुड़ के पानी से गूंथा जाता है। पूड़़ी के लिये आटा कसा हुआ रखा जाता है लेकिन स्वाला बनाने के लिये आटा थोड़ा गीला होना चाहिए। इन्हें पूड़ी की तरह बेलकर तेल में तल दिया जाता है। यह हालांकि पूड़ी की तुलना में थोड़ा मोटे होते हैं। स्वालों का भी अपना महत्व है। इन्हें प्रसूता की शुद्धता से जोड़ा जाता है। बच्चे के जन्म के 11वें दिन घर में पूजन होता है और स्वाले बनाये जाते हैं। इन्हें आस पड़ोस और गांव में बांटा जाता है। अगर भूड़ा बनाने हैं तो उसके लिये उड़द की दाल को रात को भिगोकर सुबह पीसना है और उसमें स्वादानुसार नमक मिर्च मिलाकर उन्हें पकोड़ियों की तरह तल देना है। आपका अपना  धर्मेन्द्र पंत...


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4 टिप्‍पणियां:

  1. दूँण, कंडी। यह केवल बेटी की बिदाई हे नहीं पूरे उत्तराखंड के समाज के रहन सहन से जुड़ी बात थी. दूँण के लिए क्वथला, खेतों में उगाई गयी भांग के रेशे से बना हुवा , कृषि और कुटीर उद्द्योग और अनाज का थैला बनाने की टेक्नॉलॉजी का संगम। लम्बाई बिलकुल नाप से इतनी बड़ी कि मुंह बाँध कर, अनाज के दो हिस्से करके बीच में घुमा कर कंधे को आराम देने वाला गद्देदार तकिया सा बन जाता था। वजन ( ८ पाथा आगे, ८ पाथा पीछे ) जितना एक आदमी ( तब का मेहनत कश ) पूरे रास्ते, उत्तर चढ़ाव में ले जा सके, जरूरत पड़ने में दायें से बायें कंधे में, आगे का हिस्सा उठा कर, अपने आप बदल सके. यह १६ पाथा एक अन्वेषण और अनुभव आधारित माप था यह १४ या १८ भी हो सकता था ,क्यों नहीं हुवा ? अब चावलों की बोरी इसीलिए २५ किलो की है, आज के मेहनतकश की सामर्थ और और भंडारण सुविधा के कारण।
    अरसे , लम्बे समय तक बिना फ्रिज के, समान्य तापमान में ख़राब न होने वाले, मिष्ठान बनाने की टेक्नॉलॉजी का कमाल. या चावल और गुड के अनुपात की कसौटी भी थी, फिर भी चाशनी दो तार की बनती थी। एक तार के अरसे ख़राब हो जाते थे, और तीन तार के शख्त और कम मीठे हो जाते थे क्यों की मिठास का कुछ जलना शुरू हो जाता था, और अर्सौं का रंग भी अधिक गहर हो जाता था। अरसे बनाना एक सामाजिक एकता, बड़े काम में सहयोग और सहभागिता की भावना का पोषण करने वाला काम भी था। चावल को चक्की में पीस कर क्यों नहीं भिगाते थे ? ख़ास किस्म के चावल रात भर भिगाये गए फिर नितर कर अमलाटे बनाये गए चावल ही कूट सकते हैं ओखली में, बिना किचपिच के कि दाना दाना अलग रहे सूजी का सा और दिखे आटे जैसा। लकड़ी के चूल्हे की आंच ( ३५० डिग्री सेल्सियस आसपास ) में गरम तेल में २०-२५ अरसे एक साथ तलने के लिए कढ़ाई का आकर और तेल की मात्र भी निर्धारित थी। ( अब गैस के चूल्हे, ताप मान ५०० डिग्री से ऊपर, छोटी कढ़ाई और मिक्सी में पिसे चावल ( बासमती ) से वो बात नहीं बनती )
    हर घाण के अर्सों का आकार, मोटाई और रंग एक सा होता था, वह शेफ और उनकी पूरी टीम के अनुशासित हुनर का कमॉल था।

    और अंत में कंडियो का चिन्हीकरण यह घर के किये, यह गांव में बांटने के लिए, यह दी साओ (मायके आयी हुयी ब्याही बेटियां )की बिदाई के लिए , यह केवल अर्सों की ही मिठास और सुगंध नहीं थी सामजिक मेलजोल और मिठास और खुशबू का प्रतीक भी थी।
    यहाँ भी रिंगाल की नयी कंडी बन उपज, ग्रामीणो के हक़, और कुटी उद्द्योग, सामाजिक एकजुटता के समन्वयित महत्व का उदाहरण था उस पुराने समाज का , जिसका इतिहास भी सही तरह से नहीं लिखा गया है।

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  2. सच में भैजी आपने इस पूरे लेख की मिठास बढ़ा दी है। आपका शुक्रिया अदा करने के लिये शब्द कम पड़ जाएंगे। पहले तो अरसा बनाने वाले विशेषज्ञ होते थे। गांवों में मैंने सुना है कि अमुक व्यक्ति बहुत ही अच्छा अरसे बनाता है। अब भी गांवों में शादी से पहले डाली बनती है। पहले उसमें खास तौर पर अरसा ही बनते थे लेकिन अब हलवाई हावी हो गये हैं। अरसा कम और लड्डू ज्यादा बनने लग गये हैं। एक बार फिर आपका तहेदिल से शुक्रिया।

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  3. अपनी विरासत की थाती अगली पीढ़ी तक पहुंचाने के लिए हम और आप,सब मिल कर एक साथ हैं तो आपस में औपचारिक शब्दों की जगह नहीं होती। जितना मैने देखा , याद रखा, उतना लिख लेता हूँ, आप लोगों के ब्लॉगों में। यह काम एक टीम वर्क है., कुछ मुझे, कुछ आपको , हुछ अगले को मालूम है, सब मिल कर विस्तृत इतिहास लिखने की कोशिश कर सकते हैं।

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    1. वास्तव में सामूहिक प्रयास से उत्तराखंड से जुड़े कई ऐतिहासिक तथ्यों का सामने लाया जा सकता है। इतिहास का अपना महत्व होता है और गढ़वाल का इतिहास बेहद समृद्ध है।

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