शुक्रवार, 9 अक्तूबर 2015

भगवान शिव को रिझाने के लिये मां पार्वती ने किया था 'चौंफुला'

     चपन में बसंतकालीन और कभी कभार शरदकालीन रातों में गांव में होने वाले लोकगीतों और लोकनृत्यों का मैंने बराबर आनंद उठाया है। अमूमन गांव की महिलाएं बसंत ​ऋतु के समय रात ढलने पर गांवों में किसी के घर के चौक यानि आंगन में इकट्ठा होकर लोकगीत और लोकनृत्यों से समां बांध दिया करती थी। मेरे गांव स्योली में भी यह परंपरा वर्षों तक चली लेकिन अब घर . घर में टीवी की घुसपैठ और हर हाथ में मोबाइल की सेंध का इन लोकगीतों और लोकनृत्यों पर बुरा असर पड़ा है। शहरों की तरफ तेजी से बढ़ने वाले पलायन ने आग में घी डालने का काम किया। लोकगीत और लोकनृत्य पीछे छूटते गये। कुछ गांवों में अब भी बसंत ऋतु में इन लोकनृत्यों की परपंरा बरकरार है। इनमें कई तरह के लोकगीत थे जिनमें साथ में लोकनृत्य भी हुआ करता था। इन लोकनृत्यों और लोकगीतों में चौंफुला, ​थड़िया, झुमैलो, झुरा, लामड़, चौपत्ती, बाजूबंद, घसियारी, चांचरी, छपेली आदि प्रमुख हैं। छमिया का हास्य नाटक भी खेला जाता था।

मस्ती और प्रेम का नृत्य है चौंफुला 

      मैं आज यहां पर चौंफुला का जिक्र करूंगा जो मस्ती, प्रेम, अनुराग, हास्य, संदेह, प्रेरणा से भरा हुआ है। यह गढ़वाल का लोकनृत्य है। हाथों और पांवों के अद्भुत संगम से किये जाने वाले इस नृत्य के बारे में कहा जाता है कि सबसे पहले पार्वती ने शिव को रिझाने के लिये पहाड़ों पर यह नृत्य किया था। स्थानीय कथाओं के अनुसार पर्वतराज हिमालय की पुत्री पार्वती पिछले जन्म की सती का ही रूप थी। पार्वती ने पहले शिव को अपने सौंदर्य से रिझाने की कोशिश की थी लेकिन बाद में उन्होंने मिट्टी और पत्थरों से चौंरी बनायी। इसके चारों तरफ कई तरह के फूल खिले हुए थे। पार्वती ने अपनी सखियों के साथ अनुराग भरे गीत गाये। शिव ने इससे खुश होकर पार्वती से विवाह किया था। सभी दिशाओं में नृत्य करने और हर तरफ फूल खिले होने के कारण इस नृत्य का नाम चौंफुला पड़ा, जिसका अर्थ है फूलों की तरह खिलना। हिंदू पौराणिक ग्रंथों के अनुसार शिव और पार्वती का विवाह ​गौरीकुंड के पास त्रियुगीनारायण गांव में हुआ था।
      चौंफुला के बारे में कहा जा सकता है कि गढ़वाल का हजारों वर्ष पुराना नृत्य है जो समय समय के साथ भारत के अन्य हिस्सों के नृत्यों के मेल से समृद्ध बनता गया या यूं कहें कि इसके स्वरूप में थोड़ा बहुत बदलाव होते रहे। डा. शिवानंद नौटियाल के अनुसार चौंफुला गुजरात के गरबा, असम के बिहू और मणिपुर के रास जैसा ही नृत्य है। भारत के विभिन्न क्षेत्रों से आकर गढ़वाल में बसने वाले लोग इसमें नयापन जोड़ते रहे। 
      चौंफुला रात के समय में नृत्य के साथ गाये जाने वाला लोकगीत है जिसमें नर्तकों की कोई तय संख्या नहीं होती है।  इस तरह का लोकनृत्य के घर के आगे बने चौक यानि आंगन में किया जाता है और इसमें किसी वाद्ययंत्र का सहारा नहीं लिया जाता है। इसमें महिला और पुरूष नर्तक अलग अलग पंक्तियों में एक दूसरे के आमने सामने खड़े होते हैं लेकिन गोलाकार के कारण दोनों तरफ के आखिरी महिला और पुरूष नर्तक एक दूसरे के पास में होते हैं। नृत्य करते समय नर्तक एक कदम आगे आकर अपनी दायीं हथेली से अपने बायें तरफ खड़े नर्तक की दायीं हथेली को बजाता है और फिर बायीं हथेली से अपने दायें तरफ खड़े नर्तक की बायीं हथेली से बजाते हुए वापस पहले वाली पोजीशन पर आ जाता है। इसमें एक तरफ के नर्तक गीत गाते हैं और फिर दूसरी तरफ के नर्तक उसे दोहराते हैं। यह नृत्य धीरे धीरे गति पकड़ता है और फिर इसमें पांवों की थाप भी शामिल हो जाती है। आखिर क्षणों में गीत पर नृत्य पूरी तरह से हावी हो जाता है। गढ़वाल में कई चौंफुला गीतों का जिक्र किया जाता है। जैसे कि......
              नणद तेरो दादू क जायूं च, दादू सुनार की ओटी च।
                   ओटी बैठि की क्या कादू च, नथ बेसर गढांदू च।
                     बौकी जिकुणी झुरौंदो च, नणद तेरो दादू क जायूं च। .......
..
(यह ननद और भाभी के बीच संवाद का गीत है। भाई अपनी बहन के लिये नथ बनवाने गया होता है। तब भाभी पूछती है,  ''ननद तुम्हारा भाई कहां गया है। भाई सुनार के पास गया है। वहां क्या कर रहा है। नाक की नथ बनवा रहा है। भाभी के दिल को दर्द दे रहा है। '')
      बड़ी चाचीजी श्रीमती कपोत्री देवी से पूछा तो उन्होंने बताया कि ''धार मा उरखेली ब्वे चौ डांडा बथौंच ....'' भी चौंफुला ही है। उन्होंने कुछ और गीतों का जिक्र भी किया। उनके जमाने में मेरे गांव में लगभग हर साल इन गीतों का आयोजन होता है। लगभग दो महीने तक चलने वाले इन गीतों का समापन बैशाखी के दिन होता था।        
      इसी तरह का एक और लोकनृत्य होता है चौपात्ति या छौपाति यह मुख्य रूप से जौनसार क्षेत्र का गीत है। कुछ स्थानों पर इन गीतों के चुरा और लामणी भी कहा जाता है। यह भी चौंफुला की तरह का ही नृत्य है जिसे सामूहिक रूप से गाया जाता है। इस तरह का एक गीत है ....
              तिल जलोटा क्या धार बौ ये, मीम तू बतै दै बौ ये।
                 तेरा दादा ने गिंदोणी दे छै, मिन जलोटा वा धार दियूरै ।।
      घसेरी में आगे थड़िया, बाजूबंद, घसियारी, झुमेलो, छपेली आदि गीतों और लोकनृत्यों के बारे में विस्तार से चर्चा करने की कोशिश करूंगा। फिलहाल तब तक चौंफुला का आनंद लें। आपका अपना धर्मेन्द्र पंत
      नोट : मैं अपने भुला (छोटा भाई) बिजेंद्र पंत का हमेशा आभारी रहता हूं कि क्योंकि एक फोन पर वह सामग्री या फोटो जुटाने में जुट जाता है। अफसोस की काफी प्रयासों के बाद भी चौंफुला की फोटो नहीं मिली। किसी भाई या बहन के पास हो तो भेजने की कृपा करें। बिजेंद्र उन लोगों में शामिल है जो गढ़वाली लोकसंस्कृति को बचाने के लिये अपने स्तर पर प्रयासरत हैं।


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3 टिप्‍पणियां:

  1. चौंफुला नृत्य शरद कालीन है या बंसन्त कालीन, पन्त जी दोनों का बता दिया। खैर , यह एक सामूहिक नृत्य है जो गुजरात के डांडिया नृत्य से मिलता जुलता है। दोनों में नृतक / नर्तकियां में गोल घेरे में अपने दायें और बांयें नृतकों से मिलाप में रहते हैं, एक में एक में डंडियां भिड़ाते है तो चौफुले में हथेलियो से तालियां बजाते हैं। चौफुला के एक ही गीत के बोल इलाके इलाके में बदले हुए होते हैं। एक गीत की दो पंक्तिया मुझे याद हैं जो उस ज़माने के जीवन के कई पहलु संरलता से संक्षेप में ऐसे उजागर करते है जैसे किसी महान साहित्यकार की भरी रचना। एक नमूना : " सर जल्वटा क्य धारा बौ ये , - तेरा दादु कु लगडि धारे , - टुकड़ा तोड़ि मै देदे बौ ये - यो द्यूरा कति मंगण व्हाये ,- या बौ कति चुम्मड़ व्हाये -- आगे..… । कल्पना करना आसान है कि उस समाज में भले ही बाहुल्यता नहीं थी लेकिन परस्पर प्रेम था, बहू को सास से छिपा कर पति की चिंता थी। देवर बौ को मा समान मान कर एक टुकड़ा (पूरी लगड़ी नहीं ) मांगता है लेकिन अपनी मा से शिकायत करने की नहीं सोचता। बौ उसे डांटती भगाती नहीं सच बोल कर भटकाने कोशिश करती है। कुछ गीत ह्रदय पटल पर सदा के लिए अंकित हो जाते हैं।

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    1. धन्यवाद भैजी (श्री बलवीर सिंह रावत जी)। आपने सही कहा। असल में गांव में रामलीला होती थी। यदि किसी कारणवश नहीं हो पायी तो शरदकालीन ऋतु में चौंफुला, थड़िया आदि का ही कार्यक्रम बन जाता है। वैसे अमूमन मकरसंक्रांति (शीतकालीन ऋतु रहती है) या बसंत पंचमी से इन गीतों का आयोजन किसी के घर में किया जाता था और फिर आंधी आये या तूफान या बारिश, हर रात को गीत जरूर गाये जाते थे। जब खेती बाड़ी का काम निबट जाता था तो दिन में भी गीतों का आयोजन होता था। यह क्रम बैशाखी तक चलता था। तब गीतों में प्रेम भरा था अब कहीं से वीडियो उपलब्ध हो भी जाए तो उससे पुरानी यादें ताजा होती हैं, क्षणिक आनंद भी मिलेगा लेकिन ये सब चीजें उस जमाने की तरह मन को प्रफुल्लित नहीं कर पाती हैं। धन्यवाद।

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