गुरुवार, 4 फ़रवरी 2016

गढ़वाल की सांस्कृतिक धरोहर 'रम्माण'

गणतंत्र दिवस की झांकी से लोगों की रम्माण के प्रति दिलचस्पी बढ़ी है। 
      स बार गणतंत्र दिवस पर राजपथ पर उत्तराखंड की झांकी देखकर पहाड़ के ही कई लोगों में जिज्ञासा पैदा हो गयी कि आखिर यह कौन सा लोकनृत्य है जिसे पूरे देश के सामने पेश करने की कोशिश की गयी। मुझसे भी इस तरह के सवाल किये गये थे जिनके मैंने संक्षिप्त उत्तर देकर यह मान लिया था कि अपनी जिम्मेदारी पूरी हो गयी। लेकिन यही सवाल थे जिन्होंने मुझे उत्तराखंड के गढ़वाल क्षेत्र के चमोली जिले के कुछ गांवों विशेषकर सलूड़ और डुंग्रा के धार्मिक महोत्सव 'रम्माण' के बारे में विस्तृत जानकारी हासिल करने के लिये प्रेरित किया। रम्माण भले ही दो चार गांवों तक सीमित हो लेकिन इसने विश्वस्तर पर अपनी पहचान बना ली है। यूनेस्को ने 2009 में रम्माण को अमूर्त कलाओं की श्रेणी में विश्व की सांस्कृतिक धरोहर घोषित किया था। यह कहा जा सकता है कि रम्माण को गणतंत्र दिवस के जरिये दुनिया के सामने पेश करने के फैसले में भी यूनेस्को से मिली पहचान ने अहम भूमिका निभायी। 
      चमोली जिले के पैनखांडा घाटी में स्थित सलूड़, डुंग्रा, डुंग्री—भरोसी और सेलंग गांवों में हर साल अप्रैल माह के दूसरे पखवाड़े में भूमि क्षेत्रपाल यानि भूमियाल देवता (भूम्याल देवता) की पूजा के लिये रम्माण महोत्सव का आयोजन किया जाता है। रम्माण बैशाखी के बाद नौ से 11वें दिन पर शुरू होता है। इसमें रामायण का गायन होता है और रम्माण उसी का अपभ्रंश है। अंतर इतना है कि रम्माण का गायन गढ़वाली बोली में होता है। विभिन्न तरह के मुखौटा नृत्यों में कई तरह के नृत्य शामिल होते है। कहा जाता है कि इन गांवों में 1911 से रम्माण महोत्सव का हर साल आयोजन होता है। वैसे उत्तराखंड में मुखौटा नृत्यों की शुरुआत आदि शंकराचार्य के समय हो गयी थी। पहले बद्रीनाथ यात्रा के शुरू में जोशीमठ के नृसिंह मंदिर में रम्माण महोत्सव होता था जिसमें रामायण गायन और मुखौटा नृत्य शामिल थे लेकिन अब यह मुख्य रूप से सलूड़ और डुंग्रा गांवों तक ही सीमित रह गया है। इन दोनों गांवों में यह परपंरा वर्षों से चली आ रही है और ये इसके आयोजक होते है। दोनों गांवों का प्रत्येक परिवार इसमें अपनी सक्रिय भूमिका निभाता है। इसमें सभी जातियों के लोग भाग लेते हैं और उनकी भूमिकाएं भी जाति के हिसाब से बांट दी जाती हैं। 
जय भूमियाल देवता
      रम्माण में जो युवा अपने कला और कौशल का प्रदर्शन करते हैं उनका चयन दोनों गांवों के मुखिया और पंच मिलकर करते हैं। इन युवाओं को बाकायदा इसकी रिहर्सल दिलायी जाती है। किसी ब्राह्मण को पुजारी नियुक्त किया जाता है जो भूमियाल देवता के मंदिर में तमाम अनुष्ठान करता है दूसरी तरफ नृसिंह देवता का मुखौटा केवल सलूड़ गांव के भंडारी (राजपूत) ही पहन सकते हैं। किसी एक प्रमुख व्यक्ति को 'बारिस' नियुक्त कर दिया जाता है जो धन इकट्ठा करने से लेकर पूजा तक के आयोजन के लिये जिम्मेदार होता है। उसकी मदद के लिये 10 से 12 लोग ​होते हैं जिन्हें 'धारिस' कहा जाता है। पंच अगले साल के रम्माण महोत्सव के लिये भूमियाल देवता के निवास का भी चयन करते हैं। भूमियाल देवता एक साल के लिये जिस घर में रहता है उस परिवार के मुखिया को हर दिन इसकी पूजा करनी पड़ती है। बैशाखी के दिन भूमियाल देवता को पूरे गाजे बाजों के साथ मंदिर में लाया जाता है। कहा जाता है कि यह मंदिर 200 साल पुराना है। दूसरे दिन देवता को हरियाली चढ़ायी जाती है और फिर हर दिन भूमियाल देवता गांवों का चक्कर लगाता है। 

मुखौटा नृत्य होते हैं रम्माण के आकर्षण 

       मुखौटा नृत्य रम्माण के मुख्य आकर्षण होते हैं। मुखौटे भोजपत्र और लकड़ी के बनाये जाते हैं। कलाकारों का मेकअप ऊन, शहद, आटा, तेल, हल्दी, सिंदूर, घ्यासू यानि कालिख आदि से किया जाता है। इसमें स्थानीय पेड़ पौधों और सब्जियों का उपयोग भी किया जाता है। हिन्दुओं में किसी भी धार्मिक कार्य की शुरुआत गणेश पूजन से होती है और रम्माण में भी मुखौटा नृत्य के शुरू में गणेश कालिका के नृत्य से होती है।   गणेश के साथ ब्रह्मा की उत्पत्ति भी इसमें दिखायी जाती है। सूर्य भगवान के लिये भी नृत्य होता है जबकि स्थानीय लोग नारद के स्थानीय रूप बुढ़ देवा का बड़ा बेसब्री से इंतजार करते हैं। बुढ़ देवा अपने शरीर पर कंटीली घास चिपकाकर रखता है और फिर लोगों के बीच घुसता है। ढोल, दमाऊ और विभिन्न तरह के वाद्ययंत्रों पर कृष्ण और राधा का नृत्य मनमोहक होता है। इनके अलावा कई सामयिक मुखौटा नृत्य भी होते हैं। इनमें म्वार—म्वारिन का नृत्य भी जिसमें दिखाया जाता है कि चरवाहे अपने भैसों के झुंड को लेकर जंगल से गुजरते हैं और म्वार पर बाघ हमला करता है। आम आदमी की दैनिक समस्याओं को दर्शाने के लिये बनिया—बनियाइन का नृत्य होता है। इसके बाद ही रामायण की शुरुआत होती है जिसके कारण इसका नाम रम्माण पड़ा है। इसमें पूरी रामायण की कहानी स्थानीय जागरी कहता है जिस पर नर्तक प्रदर्शन करते हैं। रामायण से जुड़े इन नृत्यों के लिये 18 मुखौटे, 18 ताल, 12 ढोल, 12 दमाऊ और आठ भंकोरों (स्थानीय वाद्ययंत्र) का उपयोग किया जाता है। रामायण के गायन और उस पर नृत्य की शुरुआत राम जन्म से होती और यह राम लक्ष्मण का जनकपुर जाना, सीता स्वयंवर, राम वनवास, स्वर्ण मृग का वध, सीता हरण, हनुमान का सीता से मिलना, लंका दहन, राम रावण युद्ध और राजतिलक तक चलते हैं। 

नृत्य के कलाकारों को तैयार करना भी आसान काम नहीं है। बाद में ये कलाकार आकर्षण का केंद्र होते हैं। 
      
      रम्माण महोत्सव में कुछ ऐतिहासिक पुट भी डाल दिये गये हैं जैसे कि गोर्खाओं का गढ़वाल पर आक्रमण। इस पर आधारित 'माल नृत्य' होता है।  माल नृत्य के लिये चार कलाकारों का चयन किया जाता है। इनमें दो लाल और दो सफेद रंग की पोशाक पहने होते हैं। इसमें लाल पोशाक पहनने वाले एक कलाकार का सलूड़ गांव के कुंवर जाति का होना जरूरी है जबकि तीन अन्य का चयन गांव के पंच करते हैं। इनमें से लाल पोशाक पहनने वाला दूसरा माल डुंग्रा गांव का होता है जबकि सफेद पोशाक के लिये दोनों गांव से एक एक कलाकार का चयन किया जाता है। इसके साथ ही स्थानीय दंतकथाओं और लोक कथाओं पर आधारित ​नृत्य भी होते हैं। नृसिंह नृत्य और कूरजोगी नृत्य का भी अलग महत्व होता है। इस महोत्सव का समापन गांव में भोज से होता है जिसमें शुरू में प्रसाद बांटा जाता है। पहाड़ों में किसी भी धार्मिक कार्य में बकरे की बलि दी जाती है और रम्माण महोत्सव भी इससे अछूता नहीं है। बकरे की बलि भोज के लिये दी जाती है और बेहतर यही होगा कि इसे रम्माण जैसे पवित्र धार्मिक उत्सव नहीं जोड़ा जाए। 
    रम्माण के प्रति स्थानीय लोगों का उत्साह अब भी बना हुआ है। यूनेस्को से सम्मान मिलने के बाद लोग इस धरोहर को बनाये रखने के लिये प्रेरित हुए हैं लेकिन पलायन की मार का असर इस पर भी पड़ रहा है। सरकार ने पहले रम्माण को नजरअंदाज किया लेकिन अब उम्मीद जगी है कि इस परंपरा को कायम रखने के लिये राज्य सरकार उचित कदम उठायेगी। 
   आपका धर्मेन्द्र पंत 

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8 टिप्‍पणियां:

  1. गढ़वाल की सांस्कृतिक धरोहर 'रम्माण' के लिए आपका बहुत बहुत आभार

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  2. आपका आभार। 'रम्माण' अद्भुत कला है। यदि इसे गणतंत्र दिवस की झांकी में शामिल नहीं किया जाता तो शायद मेरा ध्यान भी इसकी तरफ नहीं जाता।

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  3. Dil se dhanyawad pant ji. is baar jab 26 January ke moke per uttrakand ke ye jhanki daikhi to laga ye kon sa adiwaasi dance hai gharwal ka? laikin apka ye laikh pada to thoda bahut hame bhi apne ithaas ka pata chala. dhanyawad.

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    1. आभार भारती जी। अब भी कई लोगों के दिमाग में यह सवाल बना हुआ है। उम्मीद है कि उन्हें यह आलेख पढ़ने को मिलेगा और इससे उनकी जिज्ञासा शांत होगी।

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  4. bahut hi khoob pant ji aapne uttarakhand ki saanskriti dharohar ko hamare beech laakar hame use fir se amitt kar dia...ab ye hamara prayas hona chahiye ki hum b apne se jude uttarakhandio ko RAMMAN ke bare me bataye...apke iss praschum ke liye apko saadhuwaad..
    Jitender Lakhera

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    1. आपका दिल से आभार लखेड़ा जी। गणतंत्र दिवस की परेड में शामिल होने से रम्माण को वास्तव में नयी पहचान मिली है।

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