शुक्रवार, 12 अगस्त 2016

सावन की याद, नेगी जी के गीतों के साथ

                   (श्री नरेंद्र सिंह नेगी के जन्मदिन पर 'घसेरी' की विशेष प्रस्तुति)


फोटो सौजन्य : आफिसियल ग्रुप आफ नरेंद्र सिंह नेगी
       ह बादल बहुत तेजी से पास आ रहा है। ऐसा लगता है कि उसके मन में मुझे आलिंगनबद्ध करने की तीव्र लालसा है। उसे मैं और मुझे वो दिख रहा है। यह जरूर मेरे पहाड़ का बादल होगा। हम भटके पहाड़ियों की खबर लेने वह भटकते हुए यहां पहुंच गया होगा। तभी तो वह मिलन के लिये इतना आतुर है। पता नहीं कब फूट पड़े और उसकी अश्रुधारा मुझे भिगो दे। आज मुझे यह बादल प्यारा सा लग रहा है। तब भी लगता था जब गांव के पास पहाड़ी पर यह चंचल चितचोर मुझ जैसे किशोरों का मन आह्लादित कर देता था और मां को व्याकुल। सावन का महीना पहाड़ की हर गृहिणी को अपने कामकाज को लेकर व्यथित कर देता है। इसलिए कई बार यह बादल उनके मन को नहीं भाता है। मां भी अपवाद नहीं थी। ऐसे में मेरी इच्छा हुई श्री नरेंद्र सिंह नेगी के उस गीत को सुनने की जो मुझे मेरे बचपन में लौटा देता है। जो मेरे कानों में मां के शब्दों की झंकार भी पैदा करता है। तब लगता था कि अगर मां के दो नहीं दस हाथ भी होते तो वह भी कम पड़ जाते। कपड़े, मोळ (गोबर), लकड़ियां, रजाई गद्दे, सूखने के लिये डाला गया अनाज सब को भीगने से बचाना है। बुबाजी (पिताजी), मैं, दीदी या भाई बाहर हैं तो उनकी भी चिंता होती और अगर वह स्वयं खेत में है तो खुद की नहीं घर की चिंता सताती। नेगी जी ने कितने सुंदर शब्दों में बारिश आने पर पहाड़ी जीवन की व्यथा को व्यक्त किया है और सबसे महत्वपूर्ण उसमें हास परिहास का भी पूरा पुट भरा है। आपने जरूर सुना होगा यह गीत .....
गरा रा रा ऐगे रे बरखा झुकि ऐगे,
गरा रा रा ऐगे रे बरखा झुकि ऐगे 
सरा रा रा डाण्यूं में कन कुयेड़ि छैगे 
गौं कि सतेड़ि कोदड़ि सार, गरा रा रा ऐ बरखा डाळ 
हौल छोड़ि भागि कका, काकि लुकि रे उड्यार
गरा रा रा घसैन्युं की छुलि रुझैगे .......

सावन में पहाड़ और वहां के गांव खिल उठते हैं। ऐसे में 'खुद' लगना स्वाभाविक है। फोटो सौजन्य : बिजेंद्र पंत 

       सावन में पहाड़ खिल उठते हैं। तब वे अपने पूरे यौवन पर होते हैं। गदेरों और झरनों के कोलाहल के बीच कोहरे की चादर। आखिर याद तो आएगी। 'खुद' तो लगेगी। इसलिए सावन को पहाड़ों में 'खुदेड़ महीना' कहा जाता है। विछोह की पीड़ा की व्याख्या करता है सावन यानि सौण। नेगी जी ने न सिर्फ सावन बल्कि बरसात के चारों महीनों की इस पीड़ा को अलग अलग अंदाज में पेश किया है। कभी वह ''गरा रा रा ऐगे रे बरखा झुकि ऐगे...'' वाले गीत में पूरी शरारत के साथ 'बोडी और ब्वाडा' की परेशानी के जरिये हम सबकी दुश्वारियों का वर्णन करते हैं तो दूसरी तरह उस विवाहिता के मन के अंदर झांकने के लिये विवश कर देते हैं जिसमें मायके के उसके उल्लास और उमंग से भरे दिन छिपे हैं। जिन्हें वह दर्द के जरिये इस तरह से बाहर निकालती है ... ''सौण का मैना ब्वे कनु  कै  रैणा, कुयेडी  लौंकाली, अंधेरी रात बरखा कु झमणाट, खुद तेरी लागालि''। यह दर्द का गीत है। ठंडे दर्द का गीत। सतत चलने वाले दर्द का गीत। इस गीत में ठिठुरन है। पहाड़ में अब भी कई महिलाएं इस दर्द को समझ रही होंगी लेकिन फिर भी उन्हें इसमें अपनत्व लग रहा होगा। आखिर यह उनके मन का गीत है। 
     क फिल्मी गीत है 'हाए हाए ये मजबूरी ये मौसम और ये दूरी तेरी दो टकिये की नौकरी मेरा लाखों का सावन जाए'। यह एक विरहिणी के मन की बात तो कहता है लेकिन चलताऊ अंदाज में। नेगी जी के गीतों में इसी वियोगिनी की दिल की आवाज कुछ इस तरह से निकलती है ..''हे बरखा चौमासी, बण घिरि कुयेड़ी, मन घिरि उदासी...। '' काम की मारामारी, तिस पर घना कोहरा और बारिश तथा साथ में अभावों की जिंदगी। इन सबके मिलन से पैदा होती है 'खुद'। कभी याद आती है मां की तो कभी अपने पिया की जो दूर परदेस में ड्यूटी पर तैनात है। जब 'खुद अपनी पराकाष्ठा' पर पहुंच जाती है तो फिर मन पिया के पास पहुंचने के लिये तड़प उठता है। मुझे लगता है कि पलायन के लिये हम पहाड़ियों की यह 'खुद' भी जिम्मेदार है। नेगी जी के कई गीतों में यह 'खुद' अपने अलग अलग रंग रूप में दिखायी देती है। सावन से पहले जब वह बारिश का आह्वान करते हुए गाते हैं, ''बरखा हे बरखा, तीस जिकुड़ि की बुझै जा, सुलगुदु बदन रूझै जा, झुणमुण झुणमुण कैकि ऐजा ...'' तो इसमें एक 'खुद' समायी हुई है जो अलग अंदाज में सामने आकर हमारी यादों के पिटारे को खोल देती है। 

नेगी जी का जन्म 12 अगस्त 1949 को पौड़ी गांव में हुआ था। जन्मदिन की ढेर सारी शुभकामनाएं मेरे गढ़ रत्न, मेरे भारत रत्न, मेरे सुर सम्राट। आप अपनी गीत परंपरा का शतक पूरा करो। शुभकामनाएं।  फोटो सौजन्य : आफिसियल ग्रुप आफ नरेंद्र सिंह नेगी

        कहते हैं कि जहां न जाए रवि वहां जाए कवि और मैं कहता हूं कि हमारी सोच जहां पर खत्म हो जाती है नेगी जी के गीत हमें उससे आगे तक ले जाते हैं। वह प्रकृति के चितेरे हैं। वह सौंदर्य के पुजारी हैं। शब्द, शिल्प और भाषा में सूक्ष्म कल्पनाओं को पिरोकर उन्होंने हम पहाड़ियों की कोमल भावनाओं पर पंख लगाये हैं। वह मानवतावादी हैं, वह प्रगतिवादी हैं, वह हमारे सांस्कृतिक नायक हैं। वह पिछले 40 से भी अधिक वर्षों से गीत लिख रहे हैं और उन्हें अपनी आवाज दे रहे हैं। इन गीतों में पूरा एक युग समाया हुआ है। ये गीत हर उस व्यक्ति के गीत हैं जिसका पहाड़ से नाता रहा है। हमारी संस्कृति, हमारे समाज, हमारी परंपराओं, हमारी जीवन शैली का दूसरा रूप हैं नेगी जी के गीत। उनके अंतर्मन में पहाड़ बसा है और कंठ में कोयल। इसलिए आज अगर आज कोई एक व्यक्ति समग्र तौर पर पहाड़ का प्रतिनिधित्व करता है तो उस शख्स का नाम है नरेंद्र सिंह नेगी। आज नेगी जी का जन्मदिन है। उनका जन्म 12 अगस्त 1949 को पौड़ी गांव में हुआ था। जन्मदिन की ढेर सारी शुभकामनाएं मेरे गढ़ रत्न, मेरे सुर सम्राट। आप अपनी गीत परंपरा का शतक पूरा करो। हम सब यही दुआएं करते हैं।
आपका धर्मेन्द्र पंत  

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5 टिप्‍पणियां:

  1. भाषा व संस्कृति रूपी ख्याति प्राप्त ‘तिरेपनवें गढ़’ के ध्वज वाहक वीर शिरोमणि, महा भड़, शब्दों के मसीहा, सुर नायक और असंख्य-असंख्य अलंकारों से विभूषित भाई नरेन्द्र सिंह नेगी जी को जलमवार की अनेकानेक हार्दिक शुभकामनायें।

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  4. आपने बहुत अच्छी बात कही। क्या घी संक्रांति के दिन घी का सेवन करना जरुरी होता है। मेरे इस लेख को भी देखेघी संक्रांति का त्यौहार

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