बुधवार, 23 सितंबर 2015

देवभूमि में बलि प्रथा : बोलो ना बाबा ना

      मेरे एक मित्र माधव चतुर्वेदी ने ईद पर दी जाने वाली बकरों की बलि के संदर्भ में बहुत जायज सवाल उठाया है जिसमें इन निरीह जानवरों को उन पर हो रहे अत्याचारों से मुक्ति दिलाने का हल भी छिपा हुआ है। उनका सवाल है ''कुर्बानी क्या प्रतीकात्मक नहीं हो सकती?'' यह बेहद गूढ़ सवाल है जिस पर मैं पहाड़ों में पशु बलि प्रथा के संदर्भ में चर्चा करना चाहूंगा। इस विषय पर पहले भी लंबी बहस होती रही है और इनके कुछ सकारात्मक परिणाम भी मिले हैं। लेकिन अब भी बलि प्रथा पहाड़ों में चल रही है। जिस उत्तराखंड को देवभूमि कहा जाता है, उसके लिये बलि प्रथा किसी कलंक से कम नहीं है। जब भी गांव में अठवाण या पूजा होती थी तो रह रहकर एक सवाल उठता था कि जो ईश्वर सृजन करता है वह उसे मिटाना चाहेगा और जवाब यही मिलता था नहीं। सृजक विनाशक कैसे हो सकता है? जब होश संभाला तो बलि प्रथा का विरोध करना शुरू कर दिया। दो साल पहले गांव पारिवारिक पूजा में भी इसी शर्त पर शामिल हुआ कि किसी पशु की बलि नहीं दी जाएगी और श्रीफल से काम संपन्न हुआ।

श्रीफल एक विकल्प हो सकता है।
      ऊपर जिस प्रतीकात्मक कुर्बानी की बात की गयी है वह यही श्रीफल है। मैंने पिछले साल ही देखा की पौड़ी गढ़वाल के प्रसिद्ध ज्वाल्पा देवी मंदिर में कुछ लोग विरोध के बावजूद बकरों की बलि देते हैं लेकिन अच्छी बात यह है कि ऐसे 'नासमझ' लोगों की संख्या निरंतर घटती जा रही है और इसका उदाहरण है वहां हर दिन चढ़ाये जाने वाले सैकड़ों श्रीफल। दुख की बात यह है मंदिर प्रशासन अब भी पशु बलि को बढ़ावा दे रहा है। वह चाहे तो इस पर पूर्ण रोक लग सकती है। पौड़ी गढ़वाल के बूखांल मेला और कुमांऊ के कुछ मेलों में हर साल बकरों और भैसों की बलि चढ़ाई जाती थी लेकिन अब सामाजिक संगठनों के प्रयासों और सरकार के कड़े रवैये के कारण इन पर कुछ हद तक रोक लगी है।
     क्या हम हर तरह की पूजा, चाहे वह अठवाण हो, नृकांर की पूजा या फिर मेले, उन्हें श्रीफल से संपन्न नहीं कर सकते हैं? अगर आप वास्तव में अपनी कुल देवी या देवता के प्रति समर्पण भाव और श्रद्धा रखते हैं तो ऐसा संभव है। अगर आपको 'कचबोली' या मांस खाने का ही शौक है तो उसके लिये कम से कम देवी या देवता को बहाना बनाकर उन्हें अपवित्र नहीं करें। यह कहने में हिचक नहीं है कि पहले लोग अज्ञानी थे। शिक्षा का अभाव था और इसलिए यह परंपरा चल पड़ी लेकिन अब तो हर कोई शिक्षित है फिर क्यों अज्ञानी बनने की कोशिश की जा रही है। हमारा धर्म भी हमें जीव हत्या करने की अनुमति नहीं देता है। मैंने इस विषय पर जितना अध्ययन किया मैं इसी निष्कर्ष पर पहुंचा कि हर धर्म बलि मांगता है लेकिन वह काम, क्रोध और अहंकार की बलि मांगता है किसी जीव की नहीं।
बुखांल देवी मंदिर में बलि प्रथा रोकने
के लिये श्री पीताम्बर सिंह रावत का
जिलाधिकारी को लिखा पत्र।
सराहनीय प्रयास।
    पहाड़ों में बलि प्रथा को जागरियों (तांत्रिकों) ने भी बढ़ावा दिया है। असल में दोष उनका भी नहीं हैं क्योंकि उन्होंने परपंरागत रूप से अपनी दादा परदादाओं से जागर और कर्मकांड सीखे। समय के साथ बदलना उन्हें खुद के पेशे के लिये घातक लगा और इसलिए आज भी वे बलि प्रथा की पुरजोर वकालत करने से पीछे नहीं हटते। अब इन जागरियों को यह बताने का समय आ गया है कि बलि देने का कोई धार्मिक आधार नहीं है। ऐसे लोग तर्क देते हैं कि वैदिक काल में भी यज्ञों में पशु बलि दी जाती थी लेकिन सचाई यह है कि ये लोग अपने हित के लिये वेदों में वर्णित शब्दों का गलत अर्थ लगा लेते हैं। वेदों में पांच प्रकार के यज्ञों का वर्णन है और इनमें किसी में भी पशु बलि देने की बात नहीं की गयी है।
      सामवेद में तो एक जगह लिखा गया है '' न कि देवा इनीमसि न क्या योपयामसि। मन्त्रश्रुत्यं चरामसि।।'' अर्थात हे देवताओ हम हिंसा नहीं करते और न ही ऐसा अनुष्ठान करते हैं (जिसमें बलि देनी पड़े)। हम वेद मंत्रों के आदेशानुसार आचरण करते हैं।'' यजुर्वेद में भी मानव से यही आह्वान किया गया है कि वह पशु हो या पक्षी या फिर इंसान किसी की भी बलि नहीं दे। यजुर्वेद में एक जगह कहा गया है ....
         ''इममूर्णायुं वरुणस्य नाभिं त्वचं पशूनां द्विपदां चतुष्पदाम्।
          त्वष्टु: प्रजानां प्रथमं जानिन्नमग्ने मा हिश्सी परमे व्योम।।''

अर्थात ''उन जैसे बालों वाले बकरी, ऊंट आदि चौपायों और पक्षियों आदि दो पगों वालों को मत मार।।''
    इसी तरह से ऋग्वेद में कहा गया है कि ''मा नो गोषु मा नो अश्वेसु रीरिष:।'' अर्थात हमारी गायों और घोड़ों को मत मार।
     अगर आप इस विषय पर आगे शोध करेंगे तो पाएंगे हिन्दू धर्म के किसी भी ग्रंथ में बलि देने के लिये नहीं कहा गया है। यदि आपको लगता है कि देवी या देवता बलि देकर खुश होंगे तो यह महज आपकी गलतफहमी है। इसका परिणाम उलटा हो सकता है।

धर्मेन्द्र पंत 

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5 टिप्‍पणियां:

  1. देव भूमि म बलि प्रथा। जितना मैंने पढ़ा, सुना और गुना उसके आधार पर जो मुझे मालूम है वह है की बौद्ध धर्म के प्रचार प्रसार से भारतीय समाज की वर्ण व्यवस्था समाप्त पायः हो चली थी , जिसके चलते ब्राह्मणो की जजमानी चली गयी, राजपूत राजाओं को सैनिक नही मिले , तो जहाँ जहां बौद्ध धर्म का असर कम था और राजाओं का प्रभाव अब भी बरकरार था वहां फिर से हथियार चलाने और रक्त बहाने से न झिझकने के लिए देवताओं को किन्ही अवसरों पर पशु बली देने की प्रथा शुरू की गयी। जो अब तक विद्यमान है।
    वैसे भी मांसाहारियों के लिए हर रोज लाखों पशु काटे जाते हैं, कोई उसका विरोध नहीं करता। विरोध है देवताओं के नाम पशु हत्या करने का। यह विरोध बिलकुल सही है क्यों की अगर हम मानते हैं कि सृष्टि में जो कुछ भी है उसकी रचना इश्वर ने की है तो यह कैसी नादानी है की वही इश्वर, किसी भी रूप में हो , कैसे उसकी रचना की बलि दे कर उसे प्रसन्न करके मन की इच्छा पूरी करने के लिए बलि दे कर खुश होगा ?
    मैं तो कहता हूँ की नारियल ( श्रीफल- श्री जी का उत्पन्न किया फल ) और खुंकरी को भी पूजा में स्थान नहीं मिलना चाहिए। हाँ पांडव नृत्य मे, सरां नृत्य में आप जितना चाहो तलवार बाजी कर सकते हो।

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    1. भैजी (बलवीर सिंह रावत जी) सादर प्रणाम। आपने फिर से महत्वपूर्ण जानकारी उपल​ब्ध करायी है। इसके लिये मैं आपका तहेदिल से शुक्रिया अदा करता हूं। किसी भी प्रथा के पीछे कोई उद्देश्य या कहानी जुड़ी रही। कहा जाता है कि भगवान बुद्ध स्वयं मांसाहारी थे लेकिन उन्होंने अहिंसा को अपनाया और फिर लोगों ने उनका अनुसरण किया। उनका कहना था कि किसी जीव की हत्या नहीं की जानी चाहिए।
      जहां तक श्रीफल की बात है तो यह महज एक विकल्प है। मैं भी उन लोगों में हूं जो खुंकरी देखते ही सिहर उठते हैं। मैं आपकी इस बात से भी सहमत हूं कि श्रीफल भी क्यों? आखिर जो देने वाला होता है वह लेने वाला कभी नहीं हो सकता है। बेहतर हो कि इंसान स्वयं में सुधार करे और अपने अवगुणों का बलिदान करे। शायद बलिदान यही है।

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  2. Yes apne sok k liye devi devtao k naam pe y admbr bhra khel wakai shrmnaak bhla nirjiv ko marke devi devta kese prshn ho jaynge bhgwan bhkti or shrdha ka bhuka hota h na ki Len den ka

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  3. आपने सच कहा, पहाड़ों में बलि प्रथा को जागरी और पण्डे बढ़ावा देते हैं, वे लोगों के उकसाते हैं ऐसा कृत्य करने के लिए... इसका अशिक्षा मुख्य कारण तो है ही साथ में घोर अज्ञानता भी है ... जागरी और पण्डे खुद कोई ज्यादा पढ़े-लिखे नहीं होते, वेद, पुराण क्या होते हैं वे जानते तक नहीं, लेकिन उनके नाम से भोले भाले लोगों को बरगलाकर, पूर्वजो का वास्ता देकर यह सब कराते रहते हैं ... आज हमारे पहाड़ी लोग खूब पढ़-लिख रहे हैं तो उनमें जागरूकता आयी है, उसी का परिणाम है कि अब अधिकांश जगहों पर लोगों ने खुद ही देश दुनिया के साथ चलते हुए बलि प्रथा बंद कर दी है, जिसे देख बहुत ख़ुशी होती है , बस कुछ स्थान पर इसे लोगों को समझा बूझकर बंद करना है ... मैं भी जब भी गांव जाती हूँ लोगों को इस विषय में समझाकर उन्हें बलि न देने के लिए प्रेरित करती हूँ .. इस विषय में मैंने २ ब्लॉग पोस्ट लिखी हैं ..आप भी देखिये ...... लिंक हैं ...

    http://kavitarawatbpl.blogspot.in/2011/07/blog-post.html

    http://kavitarawatbpl.blogspot.in/2015/01/blog-post.html


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  4. मैंने आपका ब्लाग देखा। आपने अच्छा सुझाव दिया है कि निरीह पशु की बलि देने के बजाय हम उस पैसे का सदुपयोग भी कर सकते हैं। बलि देना भी एक संकल्प है। यह अलग बात है कि उसके अर्थ गलत लगा दिये गये। धीरे धीरे सोच बदल रही है लेकिन अब भी ऐसे लोगों की संख्या ज्यादा है जो बलि प्रथा का समर्थन करते हैं और अफसोस कि इसमें शिक्षित लोग भी शामिल हैं।

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